लोककथाएँ, छोटे-छोटे किस्से और कहावतें किसी भी समाज की स्मृति और अनुभवों का सार होती हैं। वे न केवल मनोरंजन का साधन बनती हैं बल्कि पीढ़ियों के अनुभव, मूल्य और जीवन-दर्शन को संप्रेषित करने का भी काम करती हैं। "काका के कहे किस्से" इसी परंपरा को आगे बढ़ाने का एक ईमानदार और सहज प्रयास है। पुस्तक के लेखक अमित कुमार मल्ल ने यहां न तो मौलिकता का दावा किया है और न ही किसी साहित्यिक प्रयोगवाद की दुहाई दी है। प्रस्तावना में लेखक का यह कथन विशेष ध्यान खींचता है कि “मैं यह दावा नहीं करता कि किस्से मौलिक हैं और न ही इनमें मौलिकता ढूँढी जानी चाहिए। इनमें बहुत से ऐसे किस्से व कहावतें हैं, जिन्हें आप पहले कहीं पढ़ चुके होंगे या सुन चुके होंगे। किस्से से अधिक महत्वपूर्ण है किस्से को पेश किए जाने का ढंग और उससे निकला संदेश।” इस कथन में लेखक का उद्देश्य साफ झलकता है कि वे इन कहानियों को ‘बौद्धिक संपदा’ के रूप में नहीं, बल्कि ‘सामूहिक लोक-संपत्ति’ के रूप में देख रहे हैं। यहां मौलिकता का आग्रह छोड़कर, संदेश की पुनर्प्रस्तुति पर जोर दिया गया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि इन किस्...
परिवर्तन पत्रिका ब्लॉग
साहित्य, संस्कृति एवं सिनेमा की वैचारिकी का वेब-पोर्टल