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सामाजिक परिवर्तन में फोटोग्राफी की भूमिका

तस्वीरें हमारे जीवन का एक अनमोल हिस्सा होती हैं। छोटी से छोटी तस्वीर में भी एक पूरी दुनिया समा सकती है, चाहें वह एक बच्चे की हँसी हो, सूर्यास्त की लालिमा हो या किसी अनजान जगह की सुंदरता इत्यादि। लेकिन, तस्वीरें केवल खूबसूरती को ही कैद नहीं करतीं बल्कि इतिहास की सच्चाई को सहेजती हैं और समयानुसार उन्हें उजागर करती हैं। कई बार इन तस्वीरों की वजह से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन भी देखने मिलता है। तस्वीरें खींचने की कला को अंग्रेजी में फोटोग्राफी कहा जाता है। इस कला की अहमियत के कारण हर साल 19 अगस्त को विश्व फोटोग्राफी दिवस मनाया जाता है। इस लेख में, हम फोटोग्राफी की शुरुआत और इसके कुछ ऐतिहासिक किस्सों के बारे में विस्तार से बात करेंगे। फोटोग्राफी की शुरुआत तकरीबन दो सौ साल पहले शुरू हुई थी। उससे पहले यादों को सहेजने का एकमात्र तरीका चित्रकारी था। लेकिन 1826 में, फ्रांस के जोसेफ नाइसफोर नीप्स ने दुनिया की पहली स्थायी तस्वीर खींची। यह तस्वीर उनकी खिड़की से दिखने वाले दृश्य की थी, जिसे बनाने में लगभग आठ घंटे से ज्यादा का समय लगा था। इसे देखकर लोग पहली बार यह जान पाये कि किसी दृश्य को कागज पर...

वैश्विक परिप्रेक्ष्य में आदिवासियों का विस्थापन : कारण, प्रभाव और समाधान

विश्व की लगभग 47.6 करोड़ आबादी, यानी कुल जनसंख्या का लगभग छह प्रतिशत, आदिवासी समुदायों की है। इन समुदायों का अपनी भूमि, परंपराओं और प्रकृति से गहरा जुड़ाव है, इसलिए वे कभी उसे छोड़ना नहीं चाहते। बावजूद इसके उनका विस्थापन होता रहा है। आज भी यह विस्थापन लगातार जारी है जिसे एक गंभीर वैश्विक चुनौती के रूप में देखा जा सकता है। इसी चुनौती को ध्यान में रखकर 2001 में डरबन घोषणा में उनके आत्मनिर्णय, भूमि और संसाधन अधिकारों को मान्यता दी गयी थी, मगर इसका उल्लंघन आज भी जारी है।  इस लेख में आदिवासियों के विस्थापन (खासकर 2001 के बाद) के कारणों का विश्लेषण एवं उनके प्रभावों की पड़ताल करते हुए व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। चित्र : गूगल से साभार संयुक्त राष्ट्र के अनुमानों के अनुसार विश्व मे आदिवासी समुदायों की संख्या 37 से 50 करोड़ के बीच हैं। वे अपनी पैतृक भूमि पर निर्भर हैं। उनकी संस्कृति और आजीविका प्रकृति से जुड़ी है, मगर विकास परियोजनाएं और पर्यावरणीय बदलाव उन्हें उखाड़ रहे हैं। इससे उनकी सांस्कृतिक पहचान और सामाजिक ढांचे नष्ट हो रहे हैं। डरबन घोषणा में उनके अधिकारों क...

प्रेमचंद स्मृति व्याख्यान (संदर्भ : प्रेमचंद) और काव्य पाठ का आयोजन

जन संस्कृति मंच, गिरिडीह द्वारा दिनांक 03.08.25 को 'प्रेमचंद स्मृति व्याख्यान' के तहत 'हिंदी-उर्दू लेखन (संदर्भ : प्रेमचंद) एवं कवि गोष्ठी' कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम दो सत्रों में था। पहला सत्र व्याख्यान एवं दूसरा सत्र काव्य गोष्ठी का था।  व्याख्यान सत्र के मुख्य वक्ता थे डॉ. गुलाम समदानी और डॉ. शैलेन्द्र कुमार शुक्ल। डॉ. समदानी ने कहा कि प्रेमचंद भारतीय जीवन के कथाकार थे और उनकी ख्याति अंतरराष्ट्रीय है। प्रेमचंद की रचनाशीलता के केंद्र में थी आजादी और उनकी कोशिश मानव हृदय में जड़ जमाई हर तरह की गुलामी को निकाल बाहर करना था। इसके लिए उन्होंने आम अवाम की भाषा को अपनाया। हिंदी-उर्दू  के माध्यम से उन्होंने किसानों, मजदूरों, बच्चों, दलितों और महिलाओं के जीवन की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत की।  डॉ. शैलेन्द्र कुमार शुक्ल ने कहा कि सांप्रदायिकता कभी धर्म को तो कभी भाषा को आधार बनाती है। उन्होंने प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के उस वक्तव्य का जिक्र किया जिसमें उन्होंने लेखन के लिए आम आदमी की समझ की भाषा को जरूरी बताया था। शैलेन्द्र ने प्रेमचंद की भाषा को भारतीय स...

मेरे सपने में आये जब प्रेमचंद

मध्य रात्रि का समय रहा होगा और मैं उसकी निस्तब्धता में सोया था। तभी एक धुँधली-सी आकृति मेरे सामने उभरती है। धोती-कुर्ता पहने, आँखों में गहरी संवेदना और चेहरे पर एक हल्की-सी मुस्कान लिए कोई व्यक्ति कुछ कह रहा है। आवाज़ कुछ जानी-पहचानी लगी मानों बरसों से सुनता रहा हूँ। उन्होंने कहा, ‘आजकल का जमाना भी अजब है! कभी-कभी मन में विचार आता है कि क्या यह वही धरती है, वही मनुष्य हैं, जिनके बीच हमने अपनी कलम चलाई, जिनके सुख-दुख को अपनी कहानियों में पिरोया?’ चित्र : गूगल से साभार मैं चौंका, क्योंकि सब कुछ जाना-पहचाना और स्वाभाविक-सा लगा। यह तो मुंशी प्रेमचंद हैं! ठीक मेरे सामने, मुझसे बातें करते हुए।   ‘देखो बेटा’, उन्होंने अपनी बात जारी रखी, ‘एक समय था- जीवन की डगर कितनी सीधी-सादी थी और गाँव की धूल-भरी पगडंडियों पर चलते हुए कितना सुकून मिलता था। ज़रूरतें कम थीं और मन में एक स्थायी सन्तोष था। उस वक़्त आदमी का मोल उसकी हैसियत से नहीं, उसके भीतर के इंसान से था, उसकी ईमानदारी से था, उसके पड़ोसियों के साथ उसके व्यवहार से था, न कि उसके पास कितनी दौलत है या कितने चमकते कपड़े पहनता है, इस बात से।...

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के खतरे और बचने के उपाय

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) जहाँ मानवता के लिए असीमित संभावनाओं के द्वार खोलता है, वहीं यह रोजगार, विस्थापन, निजता का उल्लंघन, स्वायत्त हथियारों के उदय, साइबर सुरक्षा जोखिम, AI के नियंत्रण खोने, गलत सूचना के प्रसार, बढ़ती आर्थिक असमानता और मानवीय कौशल के क्षरण जैसी गंभीर चुनौतियाँ भी पेश करता है। यह विश्लेषण इन खतरों का विस्तार से मूल्यांकन करता है और AI के नैतिक, सुरक्षित और समावेशी विकास को सुनिश्चित करने हेतु नियामक ढाँचों, तकनीकी अनुसंधान, शिक्षा में सुधार और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग जैसे बहु-आयामी दृष्टिकोणों पर प्रकाश डालता है। इसका उद्देश्य AI के जिम्मेदार परिनियोजन के लिए एक संतुलित परिप्रेक्ष्य प्रदान करना है, ताकि इसके लाभों को अधिकतम किया जा सके और संभावित जोखिमों को न्यूनतम किया जा सके। परिचय आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) इक्कीसवीं सदी की सबसे परिवर्तनकारी प्रौद्योगिकियों में से एक बनकर उभरा है। इसकी क्षमताएँ, जो कभी विज्ञान-कथा का विषय थीं, अब दैनिक जीवन के हर पहलू में प्रवेश कर रही हैं। मशीन लर्निंग, डीप लर्निंग और नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग जैसी उप-शाखाओं में हुई प्रगति ने AI ...

गुरुदत्त का सिनेमा : आंतरिक द्वंद्व और विद्रोह का काव्य

सिनेमा वैसे तो मूल रूप से मनोरंजन का एक साधन या कहिए पर्याय है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। इसी सरोकार के तहत कई फिल्मकारों ने परदे पर मनुष्य के अंतर्मन की अनंत गहराइयों को ऐसे उकेरा जैसे कोई शायर अपनी ग़ज़ल में समय की पीड़ा को पिरोता है, या कोई चित्रकार अपने हृदय के रंगों को कैनवास पर उंडेलता है।  बात भारतीय सिनेमा के उस युग (1950-60) की है जब राज कपूर सामाजिक आख्यानों से और बिमल रॉय यथार्थवादी चित्रण से दर्शकों को बाँध रहे थे। उस दौर में गुरुदत्त ने ऐसी फिल्मों का निर्माण किया, जिसके नायक और नायिकाएँ न केवल बाहरी समाज से बल्कि अपनी आंतरिक उथल-पुथल, पितृसत्तात्मक बंधनों और अस्तित्व की व्यर्थता से संघर्ष करते हुए दिखते हैं। उनकी फिल्में- ‘प्यासा’, ‘कागज़ के फूल’, ‘साहिब बीबी और गुलाम’ और ‘चौदहवीं का चाँद’ केवल सिनेमाई कृतियाँ नहीं बल्कि मानव मन की उस अनंत तृष्णा का काव्य हैं जो सामाजिक पाखंड, प्रेम की विडंबनाओं और अर्थहीनता के खिलाफ विद्रोह करती हैं। विविधताओं से भरी इस दुनिया मे एक संवेदनशील व्यक्ति सदैव अपनी सच्चाई की खोज में समाज और स्वयं से हारता रहा है। गुरुदत्त का जीवन ...

मधुबाला और दिलीप कुमार का अधूरा प्रेम-गीत

भारतीय सिनेमा के सुनहरे पर्दे पर अनगिनत प्रेम कहानियाँ उभरीं, उनमें से कुछ कल्पना की उड़ान थीं तो कुछ वास्तविक जीवन की मार्मिक गाथाएँ। मगर इन सबमें एक ऐसी प्रेम कहानी भी है जो समय के साथ फीकी पड़ने के बजाय और भी चमकदार होती गई, वह है 'मधुबाला और दिलीप कुमार की प्रेम कहानी।' यह सिर्फ दो सितारों का रिश्ता नहीं था, बल्कि दो असाधारण प्रतिभाओं और दो नितांत विपरीत व्यक्तित्वों के बीच पनपा ऐसा प्रेम था, जो अपने अधूरेपन के कारण आज भी सिनेमाई किंवदंतियों में शुमार है।   चित्र : गूगल से साभार आज के दौर में जब बॉलीवुड के रिश्ते क्षणभंगुर होते दिखते हैं, तब मधुबाला और दिलीप कुमार का नौ साल लंबा प्रेम संबंध, अपनी गहराई और मार्मिकता के कारण और भी विशिष्ट प्रतीत होता है। यह 1951 की बात है, जब फिल्म 'तराना' के सेट पर नियति ने उन्हें करीब ला दिया। उस समय, दिलीप कुमार को 'ट्रेजेडी किंग' के नाम से जाना जाता था। वे अपनी संजीदा अदाकारी, गहन व्यक्तित्व और पर्दे पर उदासी को साकार करने की अनूठी क्षमता के लिए मशहूर थे। उनका शांत स्वभाव और विचारों में डूबी आँखें उन्हें दर्शकों के बीच एक ...